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उत्तर प्रदेश: महत्वपूर्ण लोकनृत्य, शास्त्रीय नृत्य एवं मेले। || Uttar Pradesh GK special For UPSSSC, UP(S.I.), UP POLICE, UP B'ed entrance etc.

उत्तर प्रदेश 

     सांस्कृतिक तत्व ( लोकनृत्य, शास्त्रीय नृत्य तथा मेले ) 


उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक परिधि के अंतर्गत ब्रज, अवध, भोजपुरी, बुंदेलखंड, रुहेलखंड आदि क्षेत्र स्थित है। इन क्षेत्रों की पुरातात्विक, ऐतिहासिक एवं कलात्मक गतिविधि के संरक्षण, प्रदर्शन, प्रकाशन, अभिलेखीकरण, प्रमाणीकरण और अध्ययन हेतु राज्य सरकार ने वर्ष 1957 में संस्कृति विभाग की स्थापना की है। इस विभाग की जिला/ मंडल स्तर पर विभिन्न गतिविधियों के संचालन हेतु 1996 में क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना की गई। इस विभाग के अंतर्गत कार्यशील कुछ प्रमुख संस्थाएं इस प्रकार हैं-

(1) भातखंडे संगीत संस्थान: पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के प्रयासों से शास्त्रीय संगीत की विभिन्न विधाओं में शिक्षा प्रदान करने हेतु लखनऊ में 15 जुलाई 1960 को मैरिज कॉलेज ऑफ हिंदुस्तानी म्यूजिक की नींव पड़ी। इस महाविद्यालय को 26 मार्च 1966 को संस्कृति विभाग ने अपने नियंत्रण में ले लिया। भारत सरकार द्वारा 24 अक्टूबर 2000 को इस महाविद्यालय को डीम्ड विश्वविद्यालय का स्तर प्रदान कर दिया गया तथा इसका नाम परिवर्तित करके भातखंडे संगीत संस्थान, लखनऊ कर दिया गया। संगीत शिक्षा के क्षेत्र में यह उत्तर प्रदेश का पहला विश्वविद्यालय है।

(2) राज्य ललित कला अकादमी (लखनऊ): कला तथा कलाकारों को प्रोत्साहित कर कला के प्रति लोगों में जागृति उत्पन्न करने के लिए इसकी स्थापना 8 फरवरी 1962 को संस्कृति विभाग के अधीनस्थ पूर्णत: वित्त पोषित स्वायत्तशासी संस्था के रूप में की गई थी। इसके द्वारा कला प्रदर्शनियों, प्रतियोगिताओं व व्याख्यानो आदि का आयोजन किया जाता है।

(3) भारतेंदु नाट्य अकादमी (लखनऊ): हिंदी भाषी प्रांतों में प्रतिभावान व आकांक्षी युवक-युवतियों को नाट्य कला में प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से भारतेंदु नाट्य अकादमी की स्थापना अगस्त 1975 में लखनऊ में हुई थी। अकादमी द्वारा नाट्य कला के विभिन्न पक्षों अभिनय, निर्देशन, रंग-तकनीक एवं नाट्य साहित्य विषयों में गहन प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है।

(4) उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी (लखनऊ): इसकी स्थापना 13 नवंबर 1963 को लखनऊ में की गई यह अकादमी संगीत, नृत्य, नाटक, लोक संगीत, लोक नाट्य की परंपराओं के प्रचार-प्रसार संवर्धन एवंं परिरक्षण का महत्वपूर्ण कार्य करती है।

(5) राष्ट्रीय कथक संस्थान (लखनऊ): इस संस्थान की स्थापना संस्कृति विभाग के अंतर्गत स्वायत्तशासी संस्था के रूप में 1988-89 में हुई। इस संस्थान का उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर कत्थक के विविध घरानों की परंपराओं का अभिलेखीकरण, युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहन, वरिष्ठ कलाकारों के संरक्षण एवं नृत्य का संवर्धन है। मई 2010 से यह संस्थान लखनऊ विश्वविद्यालय से संबंध हो गई है। अब यह स्नातक की डिग्री भी देती है।

(6) अयोध्या शोध संस्थान: संस्कृति विभाग के अंतर्गत इस संस्थान की स्थापना 18 अगस्त 1986 को तुलसी स्मारक भवन, अयोध्या में की गई थी।

(7) उत्तर प्रदेश जैन विद्या शोध संस्थान: संस्कृति विभाग के अधीन इस स्वायत्तशासी संस्था की स्थापना 1990 में लखनऊ में की गई।

(8) जनजाति एवं लोक कला संस्कृति संस्थान: प्रदेश में जनजातीय लोक संस्कृति के संरक्षण संवर्धन एवं प्रदर्शन हेतु इस संस्थान की स्थापना 1996 में लखनऊ मेंं की गई है।


नृत्य कला (शास्त्रीय नृत्य)
   राज्य में शास्त्रीय नृत्य का विकास बाद में हुआ लेकिन लोक नृत्य की परंपरा बहुत प्राचीन है। लोकगीतों के साथ लोक नृत्य का विशेष संबंध है। अतः विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले लोकगीतों के साथ-साथ नृत्य भी किए जाते रहे हैं।
उत्तर प्रदेश का एकमात्र शास्त्रीय नृत्य 'कत्थक' है, जिसका प्रारंभ मंदिर के पुजारियों द्वारा कथा बांचते समय हाव-भव के प्रदर्शन से माना जाता है। मुस्लिम शासकों ने इस नृत्य को राजदरबार में आश्रय देेना शुरू किया। वाजिद अलीशाह (अवध) के दरबार में इसका विशेष विकास हुआ। इस नृत्य का मुख्य केंद्र लखनऊ है। इस नृत्य का उननायक ठाकुर प्रसाद को माना जाता है। और बिंदादीन ने कत्थक मेंं ठुमरी गायन का प्रवेश कराया। 20वी शतााब्दी में कत्थक केेे उत्थान में लीला सोखे (मेनका) का विशेष योगदान रहा है। इस नृत्य के कलाकारों में ठाकुर प्रसाद, सुखदेव प्रसाद, शंभू महाराज, दुर्गा महाराज, बिरजू महाराज, कालका महाराज, अच्छन महाराज, लच्छू महाराज, तारा देवी, सितारा देवी, गोपीकृष्ण चौबे, अलकनंदा आदि मुख्य हैं।
    प्रदेश में चार संस्थानों द्वारा कत्थक में स्नातक की डिग्री दी जाती है वे संस्थाएं हैं-
• बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
• आगरा विश्वविद्यालय
• भातखंडे संगीत संस्थान, लखनऊ
• राष्ट्रीय कथक संस्थान, लखनऊ


नृत्य कला (लोकनृत्य)
प्रदेश के प्रत्येक अंचल में लोकगीतों में भिन्नता के साथ ही लोक नृत्य में भी भिन्नता मिलती है। प्रमुख लोक नृत्य इस प्रकार हैं- 

ख्याल नृत्य: पुत्र जन्मोत्सव पर बुंदेलखंड में ख्याल नृत्य किया जाता है। इसके अंतर्गत रंगीन कागजों  बांसों की सहायता से मंदिर बनाकर फिर उसे सिर पर रखकर नृत्य किया जाता है।

शैरा या सैरा नृत्य: यह नृत्य बुंदेलखंड में कृषक अपनी फसलों को काटते समय हर्ष प्रकट करने के  उद्देश्य से करते हैं।

घोड़ा नृत्य: यह नृत्य बुंदेलखंड क्षेत्र में मांगलिक अवसर पर बाजों की धुन पर घोड़ो द्वारा कराया जाता है।

धुरियां नृत्य: बुंदेलखंड के प्रजापति (कुम्हार) लोग इस नृत्य को स्त्री वेश धारण करके करते हैं।

 देवी नृत्य: यह नृत्य अधिकांशतः बुंदेलखंड क्षेत्र में ही प्रचलित है। इस लोक नृत्य में एक नर्तक देवी का स्वरूप धारण करके अन्य मृतकों के सामने खड़ा रहता है तथा उसके सम्मुख शेष सभी नर्तक नृत्य करते हैं।


राई नृत्य: यह नृत्य बुंदेलखंड की महिलाओं द्वारा वसंतोत्सव व कृष्ण जन्माष्टमी आदि अवसरों पर किया जाता है। इसको मयूर की भांति किया जाता है इसलिए यह मयूर नृत्य भी कहलाता है।


दीप नृत्य: बुंदेलखंड के अहीरों समाज द्वारा अनेकानेक दीपकों को प्रज्वलित करके किसी घड़े, कलश अथवा थाली में रखकर तथा उन प्रज्वलित दीपो को सिर पर रखकर नृत्य किया जाता है।


पाई डंडा नृत्य: यह गुजरात के डांडिया नृत्य के समान है जो कि बुंदेलखंड के अहीर समाज द्वारा किया जाता है।


कानरा नृत्य: बुंदेलखंड के धोबी समाज की स्त्री पुरुषों द्वारा कानरा में विवाह उत्सव पर नृत्य किया जाता है।


कार्तिक नृत्य: यह बुंदेलखंड क्षेत्र में कार्तिक माह में नृतकों द्वारा श्री कृष्ण तथा गोपी बनकर किया जाने वाला नृत्य है।


बरे॑डी नृत्य: ब्रज की लठमार होली की तरह बुंदेलखंड क्षेत्र में दीपावली के अवसर पर कई दिनों तक ढोल नगाड़े की तान पर आकर्षक वेशभूषा के साथ मोर पंखधारी लठैत एक दूसरे पर ताबड़तोड़ वार करते हुए ब्रैंडी नृत्य व खेल का प्रदर्शन करते हैं।


रास नृत्य: यह नृत्य ब्रज क्षेत्र में रासलीला के दौरान किया जाता है और राशक दंड नृत्य भी इस क्षेत्र का एक रोचक नृत्य है।


झूला नृत्य: यह भी ब्रज क्षेत्र का नृत्य है, जिसका आयोजन श्रावण मास में किया जाता है। इस नृत्य को मंदिरों में भी किया जाता है।


मयूर नृत्य: यह नृत्य भी ब्रज क्षेत्र में किया जाता है। इसमें नृत्य के दौरान मोर के पंख से बने विशेष वस्त्र धारण किया जाता है।


चरकुला नृत्य: यह ब्रज क्षेत्र के लोगों द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। होली पर 108 दीपकों का चरकुला(पिंजरा) सिर पर रखकर महिलाओं द्वारा यह नृत्य किया जाता है।


घड़ा नृत्य: ब्रज क्षेत्र के लोगों द्वारा किये जाने वाले इस नृत्य में बैलगाड़ी अथवा रथ के पहिए पर अनेक घड़े रखे जाते हैं, फिर उसे सिर पर रखकर नृत्य किया जाता है।


धोबिया नृत्य: विवाह व संतान उत्पत्ति पर पूर्वांचल में यह धोबी समुदाय द्वारा किया जाने वाला नृत्य है। इसमें नृत्य के माध्यम से धोबी व गधे के संबंधों की जानकारी प्राप्त होती।


कठघोड़वा नृत्य: यह नृत्य पूर्वांचल में मांगलिक अवसरों पर किया जाता है। इसमें एक नर्तक अन्य मृतकों के घेरे के अंदर कृत्रिम घोड़ी पर बैठकर नृत्य करता है।


धी॑वर नृत्य: पूर्वांचल में यह नृत्य अनेक शुभ अवसरों पर विशेष रूप से कहार जाति के लोगों द्वारा किया जाता है।


नटवरी नृत्य: यह नृत्य प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के अहीर समाज द्वारा किया जाता है।


नटवा या नकटौरा नृत्य: पूर्वांचल में लड़कों के विवाह वाले घरों में बारात जाने के बाद उन घरों की महिलाओं द्वारा पुरुषों का वेश धारण कर रात भर हास परिहास युक्त नाटक नृत्य किया जाता है। 


जोगिनी नृत्य: इस नृत्य को अवध क्षेत्र में विशेषकर रामनवमी के त्यौहार पर किया जाता है। इसके अंतर्गत साधु या कोई अन्य पुरुष महिला का रूप धारण करके नृत्य करते हैं।


कलाबाजी नृत्य: कलाबाजी नृत्य को अवध क्षेत्र के लोग करते हैं। इसमें नर्तक 'मोरबाजा' लेकर कच्ची घोड़ी पर बैठकर नृत्य करते हैं।


पासी नृत्य: पूर्वांचल व अवध के पासी समाज के लोगों द्वारा यह नृत्य किया जाता है। इस नृत्य में सात अलग-अलग मुद्राओं की एक गति तथा एक ही लय में युद्ध की भांति नृत्य किया जाता है।


फरूहाई नृत्य: यह अवध एवं पूर्वांचल क्षेत्र के अहीर समाज का प्रसिद्ध लोक नृत्य है। लाठी डंडों के साथ पैर व कमर में घुंघरू बांधकर डफली अन्य वाद्य यंत्रों की धुन पर यह नृत्य किया जाता है।


कर्मा व शीला नृत्य: यह नृत्य क्रमशः सोनभद्रमिर्जापुर के खरवार एवं आदिवासी लोगों द्वारा किया जाता है।


ठडिया नृत्य: सोनभद्र आदि जिलों में संतान की कामना पूरी होने पर यह नृत्य सरस्वती के चरणों में समर्पित होकर किया जाता है।


चोलर नृत्य: यह नृत्य मिर्जापुर एवं सोनभद्र आदि जिलों में अच्छी वर्षा तथा अच्छी फसल के लिए किया जाता है।


ढरकहरी नृत्य: यह नृत्य सोनभद्र जिले में जनजातियों द्वारा किया जाता है। इसमें जानवरों के सींग लगे वाद्य यंत्र बजाकर नृत्य किया जाता है।


ढेढिया नृत्य: इस लोक नृत्य का प्रचलन प्रदेश के द्वाबा क्षेत्र में है जोकि राम के लंका विजय के बाद वापस आने पर स्वागत स्वरुप किया जाता है। इसमें छिद्र युक्त मिट्टी के बर्तन में दीपक जलाकर उसे सिर पर रखकर किया जाता है।


छपेली नृत्य: एक हाथ में रुमाल तथा दूसरे में दर्पण लेकर किए जाने वाले इस नृत्य में आध्यात्मिक समुन्नति की कामना की जाती है।


छोलिया नृत्य: प्रदेश के राजपूतों द्वारा यह नृत्य विवाह उत्सव पर किया जाता है। इस नृत्य को करते समय एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में ढाल होती है।   



मेले

     उत्तर प्रदेश में प्रति वर्ष लगभग 2250 मेलों का आयोजन किया जाता है जो कि राज्य के समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के प्रतीक हैं।

 राज्य में सर्वाधिक मेले (86) मथुरा में लगते हैं। उसके बाद कानपुर (80), हमीरपुर (79) आगरा (72) तथा फतेहपुर (70) मेले लगते हैं। 

     प्रदेश में सबसे कम मेले पीलीभीत जिले में लगते हैं।

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