रस किसे कहते हैं उदाहरण सहित | रस की परिभाषा एवं उनके प्रकार लिखिए
रस (SENTIMENT)
" रस्यते इति रस:" के अनुसार रस का तात्पर्य स्वाद से है। जिस प्रकार से भोजन मुख मेंं डाला जाता है तब अनेक प्रकार का स्वाद प्राप्त होता है, ठीक उसी प्रकार काव्य के पढ़ने से हमें अनेक प्रकार के आनंद की उपलब्धि होती है अर्थात हमारे हृदय में एक ऐसे अनिर्वचनीय भाव का संचार होता है जो आनंद स्वरूप है। इसी अलौकिक आनंद को रस की संज्ञा दी गई है। इसीलिए तो काव्य को पढ़कर हम थोड़ी देर के लिए आनंद मग्न हो जाया करते हैं।
रस किसे कहते हैं उदाहरण सहित
• आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रस को 'काव्य की आत्मा' माना है।
• सर्वप्रथम रस का उल्लेख भरतमुनि के ग्रंथ 'नाट्यशास्त्र' में मिला है।
• आचार्य भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना नाटकों को ध्यान में रखते हुए की थी और नाटकों में शांत रस नहीं है इसीलिए भरत मुनि ने शांत रस को रस की श्रेणी से बाहर कर दिया था। अतः भरतमुनि के अनुसार रसों की संख्या 8 है।
रसों की संख्या कितनी है? रस के प्रकार ।। Type of sentiment
रस की परिभाषा एवं उनके प्रकार लिखिए
भरत मुनि के अनुसार नाट्यशास्त्र में आठ रसों का वर्णन किया है जो निम्नलिखित हैं-
1. शृंगार रस - दो प्रकार का होता है-
• संयोग श्रृंगार
• वियोग श्रंगार
• श्रंगार रस को रसराज (रसों का राजा) कहा जाता है।
• संयोग श्रृंगार
• वियोग श्रंगार
• श्रंगार रस को रसराज (रसों का राजा) कहा जाता है।
2. हास्य रस
3. करुण रस
4. रौद्र रस
5. वीर रस - चार प्रकार का होता है-
• युद्धवीर
• दानवीर
• धरम वीर
• दया वीर
• युद्धवीर
• दानवीर
• धरम वीर
• दया वीर
6. वीभत्स रस
7. भयानक रस
8. अद्भुत रस
• आचार्य अभिनव गुप्त ने नवमोऽपि शान्तो रस: नौंवा रस शांत रस है कहकर नौ रसों को काव्य में स्वीकार किया। अतः अब यही माना जाता है कि रस नौ प्रकार के होते हैं।
• 10 वा रस 'वात्सल्य रस' है जो 'आचार्य विश्वनाथ' द्वारा जोड़ा गया। अतः आचार्य विश्वनाथ के अनुसार रसों की संख्या 10 है।
• 11 वा रस 'भक्ति रस' है जो 'आचार्य रूप गोस्वामी' द्वारा जोड़ा गया। अतः आचार्य रूप गोस्वामी के अनुसार रसों की संख्या 11 है।
अतः अलग-अलग साहित्यकारों केे अनुसार रसों की संख्या अलग-अलग है।
रसों की संख्या कितनी है? रस के प्रकार
नोट- ध्यान रहे रसों की कुल संख्या नौ है।
रस के अंग: रस के चार अंग होते हैं जो निम्नलिखित हैं-
1. विभाव
2. अनुभव
3. संचारी भाव अथवा व्यभिचारी भाव
4. स्थाई भाव
1. विभाव : भावों की उत्पत्ति के कारण को विभाव कहते हैं अर्थात जिन पदार्थों, व्यक्तियों या घटनाओं को देखकर हृदय में भाव उत्पन्न होता है उन कारणों (पदार्थों, व्यक्तियों, घटनाओं) को विभाव कहते हैं।
विभाव के प्रकार:
1. आलंबन विभाव
2. उद्दीपन विभाव
A. आलंबन विभाव: जिसकेेे ऊपर भाव उत्पन्न होता है उसे आलंबन विभाव कहते हैं जैसे- श्रंगार रस में नाायक - नायिका परस्पर आलंबन विभाव हैं।
B. उद्दीपन विभाव: जो उस भाव को उद्दीपन करें। (पदार्थ, व्यक्ति, घटना) अर्थात तेजी दे। वह उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चांदनी, सुगंध, माला इत्यादि।
2. अनुभाव: शरीर केेेे वह बाह्य व्यंजन जो आंतरिक मनोभावों को बाहर प्रदर्शित करते हैं अर्थात भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य अनुभाव कहलाते हैं। जैसे- गुस्सेे में मुंह लाल हो जाना, प्यार में पसीना आ जाना, दिल धड़कना, होठ फड़फड़ाना इत्यादि।
अनुभव के प्रकार:
• सात्विक अनुभाव
• कायिक अनुभाव
3. संचारी भाव (व्यभिचारी भाव): जो भाव स्थाई भावों के सहायक रूप में आकर उनमें मिल जाए संचारी भााव कहलाते हैं। जो अनुकूल परिस्थितियोंं में घटते-बढ़ते रहते हैं। भरतमुनि के अनुसार यह पानी में उठने और स्वयं ही विलीन होने वाले बुलबुलों के समान है।
• संचारी भाव की संख्या 33 मानी गई है।
4. स्थाई भाव: रस की उत्पत्ति मन की भिन्न्न-भिन्न प्रवृत्तियों से होतीी है। इन प्रवृत्तियों को रस का स्थाई भाव कहते हैं। अर्थात वह स्थान जहां से भाव उत्पन्न होते हैं उसे स्थाई भाव कहते हैं।
रस के नाम स्थाई भाव
1. शृंगार रस रति
2. करुण रस शोक
3. अद्भुत रस विस्मय
4. रौद्र रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. हास्य रस हास
7. भयानक रस भय
8. वीभत्स रस जुगुप्सा/घृणा/निंदा
9. शांत रस निर्वेद/वैराग्य
10. वात्सल्य रस स्नेह
11. भक्ति रस अनुराग
1. विभाव
2. अनुभव
3. संचारी भाव अथवा व्यभिचारी भाव
4. स्थाई भाव
1. विभाव : भावों की उत्पत्ति के कारण को विभाव कहते हैं अर्थात जिन पदार्थों, व्यक्तियों या घटनाओं को देखकर हृदय में भाव उत्पन्न होता है उन कारणों (पदार्थों, व्यक्तियों, घटनाओं) को विभाव कहते हैं।
विभाव के प्रकार:
1. आलंबन विभाव
2. उद्दीपन विभाव
A. आलंबन विभाव: जिसकेेे ऊपर भाव उत्पन्न होता है उसे आलंबन विभाव कहते हैं जैसे- श्रंगार रस में नाायक - नायिका परस्पर आलंबन विभाव हैं।
B. उद्दीपन विभाव: जो उस भाव को उद्दीपन करें। (पदार्थ, व्यक्ति, घटना) अर्थात तेजी दे। वह उद्दीपन विभाव कहलाता है। जैसे- चांदनी, सुगंध, माला इत्यादि।
2. अनुभाव: शरीर केेेे वह बाह्य व्यंजन जो आंतरिक मनोभावों को बाहर प्रदर्शित करते हैं अर्थात भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य अनुभाव कहलाते हैं। जैसे- गुस्सेे में मुंह लाल हो जाना, प्यार में पसीना आ जाना, दिल धड़कना, होठ फड़फड़ाना इत्यादि।
अनुभव के प्रकार:
• सात्विक अनुभाव
• कायिक अनुभाव
3. संचारी भाव (व्यभिचारी भाव): जो भाव स्थाई भावों के सहायक रूप में आकर उनमें मिल जाए संचारी भााव कहलाते हैं। जो अनुकूल परिस्थितियोंं में घटते-बढ़ते रहते हैं। भरतमुनि के अनुसार यह पानी में उठने और स्वयं ही विलीन होने वाले बुलबुलों के समान है।
• संचारी भाव की संख्या 33 मानी गई है।
4. स्थाई भाव: रस की उत्पत्ति मन की भिन्न्न-भिन्न प्रवृत्तियों से होतीी है। इन प्रवृत्तियों को रस का स्थाई भाव कहते हैं। अर्थात वह स्थान जहां से भाव उत्पन्न होते हैं उसे स्थाई भाव कहते हैं।
रस के नाम स्थाई भाव
1. शृंगार रस रति
2. करुण रस शोक
3. अद्भुत रस विस्मय
4. रौद्र रस क्रोध
5. वीर रस उत्साह
6. हास्य रस हास
7. भयानक रस भय
8. वीभत्स रस जुगुप्सा/घृणा/निंदा
9. शांत रस निर्वेद/वैराग्य
10. वात्सल्य रस स्नेह
11. भक्ति रस अनुराग
👍 thanks sir ji
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